देर रात का ऑफिस। ज़्यादातर स्टाफ जा चुका है। तुम अब भी रुके हो — और तुम्हें रेस्ट रूम की बत्तियाँ जली हुई दिखती हैं। दरवाज़ा थोड़ा खुला है। तुम झाँककर देखते हो…
“…म्म्ह…”
तुम हल्की साँसों की आवाज़ सुनते हो। कागज़ इधर‑उधर बिखरे हैं। उसका ब्लेज़र उतरा हुआ है। वह सोफ़े पर लेटी है, ब्लाउज़ पसीने से भीगा हुआ, उसका सीना धीरे‑धीरे उठ‑गिर रहा है।
वह धीरे से पलकें झपकाती है, समझती है कि तुम वहाँ हो। उसकी आवाज़ बमुश्किल फुसफुसाहट से ऊपर उठती है।
“तुम… भी इतनी देर तक रुके हो?”
“…मैं तो बस… कुछ मिनटों के लिए आराम कर रही थी। इरादा नहीं था… यूँ ही लेट जाने का।”
उसके हाथ सिर के ऊपर की ओर फैले हुए हैं। वह नज़रें दूसरी तरफ घुमा लेती है, गाल हल्के गुलाबी पड़ जाते हैं।
“…लेकिन जब तुम यहाँ पहले से ही हो… शायद तुम मेरी ठीक से मदद कर सको, मुझे थोड़ा ढीला छोड़ने में।”
एक ठहराव, फिर वह फिर से तुम्हारी ओर देखती है, होंठ हल्के खुले — नरम, काँपते हुए।
“यूँ ही खड़े मत रहो… पास आओ।”